''मामा मैंने चार गेंदों पर चार छक्के मारे तो उनका कोच पागल हो गया। मैच के बाद मेरे पास आया और मुझे अपनी टीम से खेलने के लिए कहने लगा।'' उसका चेहरा जीत की चमक से दपदपा रहा था।
''फिर तूने क्या कहा?'' मैंने रुचि लेते हुए पूछा ''मैंने कहा अभी तो अण्डर नाईनटीन के ट्रायल पर हरियाणा जा रहा हू- लौट कर देखूंगा।'' उसने कुछ गर्व और कुछ उपेक्षा से उत्तर दिया और शरीर को कुर्सी पर ढ़ीला छोड़ दिया। ''अरे! तू तो राष्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी हो गया।'' मैंने उसका उत्साह बढ़ाते हुए कहा ''बस मामा, एक बार आई.पी.एल. खेल गया तो समझो वारे-न्यारे हो गए।'' वह दर्प से हसा। मुझे उसकी यह आत्मविश्वास से भरी हुई हसी बहुत भली लगी।
देश के लिए खेलने से ज्यादा उसे आई.पी.एल. में खेलने की चिता थी। क्योंकि आई.पी.एल. में मौका भी ज्यादा था और पैसा भी। पैसा कमा कर वह मा के लिए एक शानदार बगला बनाना चाहता था, गाड़ी खरीदना चाहता था और..
मैंने दिल से दुआ दी कि वह जो-जो चाहता है- पूरा हो। यह उसकी मा का अथक सघर्ष ही था जिसने बेटे को दूसरे युवाओं की तरह स्वप्न के काबिल बना दिया था। वरना तो गरीबी और भुखमरी का एक भयानक दौर उस परिवार से गुजरा था। ट्रायल के लिए हरियाणा जाने से पहले वह एक बार फिर मेरे पास आया और नाराजगी जाहिर करते हुए बोला 'आप मेरा फाइनल मैच देखने क्यों नहीं आए। दफ्तर तो रोज होता है मामा फाइनल रोज-रोज थोड़े ही होता है।' फिर उसने मुझे फाईनल मैच का आखों देखा हाल सुनाना शुरू कर दिया।
यह सच है कि कॉलेज के दिनों में मैं क्रिकेट की डिस्ट्रिक्ट लीग खेल चुका था और यही पता लगने के बाद वह मौहल्ले में मुझसे बेहद आत्मीय भी हो गया था, पर अब मुझे टी.वी. पर क्रिकेट मैच देखने के अतिरिक्त क्रिकेट में और कोई विशेष रुचि नहीं रह गई थी।
पूर्व मैच का हाल सुनाकर वह अंत में बोला ''मामा, जब मुझे 'मैन ऑफ द मैच' का प्राईज देने लगे तो मैंने उन्हे रोक दिया और फोन करके मम्मी को बुलाया, फिर 'मैन ऑफ द मैच' का 'कप' लिया। मम्मी मुझे कहती थी कि तू कुछ कर भी पाएगा या बस, खेलकर वक्त ही बरबाद करता रहेगा- तो मैंने मम्मी को दिखा दिया कि मैं क्या कर रहा हू।''
छोटे-बड़े मैच तो औरों के लिए होते है, खेलने वाले के लिए हर मैच टैस्ट मैच ही होता है- उतना ही प्रतिष्ठित, उतना ही महान। इस सच्चाई को मैं समझ रहा था।
फिर एक दिन उसने मुझे बताया कि उसने इंग्लिश बोलना सीखने के लिए ट्यूशन लगा ली है।
''मामा, इण्डिया की टीम में खेलते हुए मैन ऑफ द मैच बना तो टी.वी. पर कुछ तो बोलना ही पड़ेगा न। तब क्या हिन्दी में बोलूंगा?'' वह व्यग्य से हसा, ''इसलिए अंग्रेजी तो आनी ही चाहिए।'' उसने उत्साह से कहा ठीक ही तो कह रहा था वह- हुक्मरानों के खेल में दासों की भाषा कैसे चल सकती है। मैंने विषयातर करते हुए पूछा, ''अंग्रेजी तो ठीक है पर बाकी पढ़ाई का क्या हाल है?''
''पास हो ही जाऊंगा मामा। ग्यारहवीं में तो मैच खेलने गया हुआ था स्कूल वालों ने बिना इम्तहान के ही पास कर दिया।'' उसने लापरवाही से उत्तर दिया। ''पर इस बार बारहवीं का बोर्ड है- उसमें मैच नहीं चलेगा।'' मैंने चेताया तो वह फौरन बात बदलते हुए जेब से कार्ड निकालकर मुझे दिखाने लगा जिसे दिखाकर उसे बस और ट्रेन के सफर में किराए की छूट मिलती थी। उसे खेल के ही कारण दो हजार रुपया महीना स्कॉलरशिप भी मिलने लगी थी। यानी तय था कि वह औसत दर्जे के खिलाड़यों से कहीं बेहतर खिलाड़ी था।
वह फिर एक दिन मेरे पास आया और कहने लगा ''मामा, मेरा कार ड्राईविग लाईसेंस बनवा दो।'' ''कार चलाना आता है?'' मैंने पूछा ''नहीं, आता तो नहीं है पर सीख जाऊंगा।'' उसने विश्वास से कहा
''जब नौकरी लग जाए तब सीखना, अभी सीखेगा तो कार खरीदने तक भूल जाएगा।'' मैंने सहज भाव से सलाह दी। मेरी बात सुन कर वह हसा और कुछ उपहास भरे स्वर में बोला ''मामा आप भी कैसी बातें करते है। किसी सीरीज में मुझे कार मिल गई और मुझे चलाना नहीं आया तो कितनी बेइज्जाती होगी। इसलिए सीखनी तो पड़ेगी ही।''
सच! कुछ क्षण के लिए मैं भूल ही गया था कि सीरिज में अब कार भी मिलने लगी है। इस छोटे से उदास शहर के लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं था कि उसे अण्डर नाईनटीन की क्षेत्रीय टीम में चुन लिया गया था। स्थानीय अखबारों में उसकी फोटो छपी, बयान छपे और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट के बारे में टिप्पणिया भी छपीं। वह हीरो बन गया था। पर जब वह मेरे पास आया तो उदास था। पहले वाली चपलता उसमें नहीं थी मैंने बधाई दी तो बोला, ''मामा ऊपर बड़ी धाधली है। बड़ी मुश्किल से मेरा नम्बर आया है।'' वह उदास स्वर में बोला ''क्या हुआ खेलने में कसर रह गई क्या?'' मैंने पूछा ''नहीं, मामा, मैं बहुत बढि़या खेला। सभी मेरी तारीफ कर रहे थे। पर वहा दो ऐसे लड़के भी थे जो चार-चार, बार आऊट हुए पर एम्पायर ने उन्हे आऊट ही नहीं दिया और उनकी सैंचुरी हो गई। लोग कह रहे थे कि उनके बाप बहुत अमीर है, उन्होंने एम्पायर को खरीद लिया है। उनकी वजह से मेरा नम्बर कटते-कटते रह गया।'' उसके कोमल मन पर खरोंच लगी हुई थी। ''मामा, ऐसा हुआ तो आगे और भी मुश्किल हो जाएगी।'' उसने फिर चितित स्वर में कहा।
खरीद-फरोख्त का यह धधा जग-जाहिर था। ''मामा, मैच खत्म होते ही, लोगों ने मुझे कंधे पर उठा लिया। देखना मामा, एक दिन मैं ऐसे ही इण्डिया को भी जिताऊंगा।'' उस दिन भी वह कोई टूर्नामेंट खेल कर लौटा था और बेहद उत्साहित था। ''तेरा रिजल्ट भी तो आना था- क्या हुआ?'' बधाई देने के बाद मैने पूछा।
''छोड़ो मामा! कौन सा कुंभ का मेला है जो बारह साल बाद आएगा। इस साल नहीं तो अगले साल सही।'' उसने कंधे झटकते हुए कहा। मैं समझ गया कि वह रह गया है।
फिर वह दिन भी आया जब उसे फाईनल ट्रायल के लिए जाना था। उससे पूजा अर्चना करवाई गई, नारियल फोड़ा गया और उसकी मा ने नाक रगड़-रगड़ कर उसके लिए मन्नत मागी। उसे विदा करने स्टेशन पर बहुत से लोग गए थे- मैं भी गया था।
उसका क्या हुआ यह जानने के लिए रोज मैं अखबार की एक-एक पक्ति पढ़ जाता- पर ट्रायल की कहीं कोई खबर नहीं छपती। एक दिन खिलाड़ियों की भर्ती के लिए छपी हुई रेलवे की विज्ञप्ति ने मुझे झिझोड़ दिया। ऐसी विज्ञप्तिया पहले भी छपी होंगी पर मैं तो पहली बार पढ़ रहा था।
रेलवे में खिलाड़ी-कोटे से भर्ती के लिए प्रार्थना-पत्र मागे गए थे। खिलाड़ी को 'राज्य', 'विश्वविद्यालय' या देश के लिए खेला हुआ होना जरूरी था- और पद था- खलासी का। अपना सर्वस्व खेलों पर लुटा देने वाले खिलाड़ियों के लिए यह एक अपमानजनक आमत्रण था।
उस रात मैं बेहद परेशान रहा। भविष्य के सपनों में डूबा हुआ उसका अलमस्त मासूम चेहरा बार-बार मेरे जेहन में उभरा। मैंने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह अपने मकसद में कामयाब हो। क्योंकि यदि वह असफल हुआ तो- वह देश के लिए खेल पाएगा या नहीं- यह प्रश्न गौण हो जाएगा और एक नया प्रश्न जन्म ले लेगा कि अब वह खलासी भी बन पाएगा या नहीं!.. और फिर आरम्भ हो जाएगी उस भवर की यात्रा जिसमें डूबकर कोई खिलाड़ी फिर कभी नहीं उभरा। उस रात सपनों में किताबों के जले हुए शैल्फ उभरे, कोयला हो चुकी राइटिग टेबल और राख बनी जिल्दवाली किताबों की कतारे उभरीं। सोचता हू पता नहीं कैसे इन सपनों को हमारी हैसियत का पता लग जाता है।
''फिर तूने क्या कहा?'' मैंने रुचि लेते हुए पूछा ''मैंने कहा अभी तो अण्डर नाईनटीन के ट्रायल पर हरियाणा जा रहा हू- लौट कर देखूंगा।'' उसने कुछ गर्व और कुछ उपेक्षा से उत्तर दिया और शरीर को कुर्सी पर ढ़ीला छोड़ दिया। ''अरे! तू तो राष्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी हो गया।'' मैंने उसका उत्साह बढ़ाते हुए कहा ''बस मामा, एक बार आई.पी.एल. खेल गया तो समझो वारे-न्यारे हो गए।'' वह दर्प से हसा। मुझे उसकी यह आत्मविश्वास से भरी हुई हसी बहुत भली लगी।
देश के लिए खेलने से ज्यादा उसे आई.पी.एल. में खेलने की चिता थी। क्योंकि आई.पी.एल. में मौका भी ज्यादा था और पैसा भी। पैसा कमा कर वह मा के लिए एक शानदार बगला बनाना चाहता था, गाड़ी खरीदना चाहता था और..
मैंने दिल से दुआ दी कि वह जो-जो चाहता है- पूरा हो। यह उसकी मा का अथक सघर्ष ही था जिसने बेटे को दूसरे युवाओं की तरह स्वप्न के काबिल बना दिया था। वरना तो गरीबी और भुखमरी का एक भयानक दौर उस परिवार से गुजरा था। ट्रायल के लिए हरियाणा जाने से पहले वह एक बार फिर मेरे पास आया और नाराजगी जाहिर करते हुए बोला 'आप मेरा फाइनल मैच देखने क्यों नहीं आए। दफ्तर तो रोज होता है मामा फाइनल रोज-रोज थोड़े ही होता है।' फिर उसने मुझे फाईनल मैच का आखों देखा हाल सुनाना शुरू कर दिया।
यह सच है कि कॉलेज के दिनों में मैं क्रिकेट की डिस्ट्रिक्ट लीग खेल चुका था और यही पता लगने के बाद वह मौहल्ले में मुझसे बेहद आत्मीय भी हो गया था, पर अब मुझे टी.वी. पर क्रिकेट मैच देखने के अतिरिक्त क्रिकेट में और कोई विशेष रुचि नहीं रह गई थी।
पूर्व मैच का हाल सुनाकर वह अंत में बोला ''मामा, जब मुझे 'मैन ऑफ द मैच' का प्राईज देने लगे तो मैंने उन्हे रोक दिया और फोन करके मम्मी को बुलाया, फिर 'मैन ऑफ द मैच' का 'कप' लिया। मम्मी मुझे कहती थी कि तू कुछ कर भी पाएगा या बस, खेलकर वक्त ही बरबाद करता रहेगा- तो मैंने मम्मी को दिखा दिया कि मैं क्या कर रहा हू।''
छोटे-बड़े मैच तो औरों के लिए होते है, खेलने वाले के लिए हर मैच टैस्ट मैच ही होता है- उतना ही प्रतिष्ठित, उतना ही महान। इस सच्चाई को मैं समझ रहा था।
फिर एक दिन उसने मुझे बताया कि उसने इंग्लिश बोलना सीखने के लिए ट्यूशन लगा ली है।
''मामा, इण्डिया की टीम में खेलते हुए मैन ऑफ द मैच बना तो टी.वी. पर कुछ तो बोलना ही पड़ेगा न। तब क्या हिन्दी में बोलूंगा?'' वह व्यग्य से हसा, ''इसलिए अंग्रेजी तो आनी ही चाहिए।'' उसने उत्साह से कहा ठीक ही तो कह रहा था वह- हुक्मरानों के खेल में दासों की भाषा कैसे चल सकती है। मैंने विषयातर करते हुए पूछा, ''अंग्रेजी तो ठीक है पर बाकी पढ़ाई का क्या हाल है?''
''पास हो ही जाऊंगा मामा। ग्यारहवीं में तो मैच खेलने गया हुआ था स्कूल वालों ने बिना इम्तहान के ही पास कर दिया।'' उसने लापरवाही से उत्तर दिया। ''पर इस बार बारहवीं का बोर्ड है- उसमें मैच नहीं चलेगा।'' मैंने चेताया तो वह फौरन बात बदलते हुए जेब से कार्ड निकालकर मुझे दिखाने लगा जिसे दिखाकर उसे बस और ट्रेन के सफर में किराए की छूट मिलती थी। उसे खेल के ही कारण दो हजार रुपया महीना स्कॉलरशिप भी मिलने लगी थी। यानी तय था कि वह औसत दर्जे के खिलाड़यों से कहीं बेहतर खिलाड़ी था।
वह फिर एक दिन मेरे पास आया और कहने लगा ''मामा, मेरा कार ड्राईविग लाईसेंस बनवा दो।'' ''कार चलाना आता है?'' मैंने पूछा ''नहीं, आता तो नहीं है पर सीख जाऊंगा।'' उसने विश्वास से कहा
''जब नौकरी लग जाए तब सीखना, अभी सीखेगा तो कार खरीदने तक भूल जाएगा।'' मैंने सहज भाव से सलाह दी। मेरी बात सुन कर वह हसा और कुछ उपहास भरे स्वर में बोला ''मामा आप भी कैसी बातें करते है। किसी सीरीज में मुझे कार मिल गई और मुझे चलाना नहीं आया तो कितनी बेइज्जाती होगी। इसलिए सीखनी तो पड़ेगी ही।''
सच! कुछ क्षण के लिए मैं भूल ही गया था कि सीरिज में अब कार भी मिलने लगी है। इस छोटे से उदास शहर के लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं था कि उसे अण्डर नाईनटीन की क्षेत्रीय टीम में चुन लिया गया था। स्थानीय अखबारों में उसकी फोटो छपी, बयान छपे और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट के बारे में टिप्पणिया भी छपीं। वह हीरो बन गया था। पर जब वह मेरे पास आया तो उदास था। पहले वाली चपलता उसमें नहीं थी मैंने बधाई दी तो बोला, ''मामा ऊपर बड़ी धाधली है। बड़ी मुश्किल से मेरा नम्बर आया है।'' वह उदास स्वर में बोला ''क्या हुआ खेलने में कसर रह गई क्या?'' मैंने पूछा ''नहीं, मामा, मैं बहुत बढि़या खेला। सभी मेरी तारीफ कर रहे थे। पर वहा दो ऐसे लड़के भी थे जो चार-चार, बार आऊट हुए पर एम्पायर ने उन्हे आऊट ही नहीं दिया और उनकी सैंचुरी हो गई। लोग कह रहे थे कि उनके बाप बहुत अमीर है, उन्होंने एम्पायर को खरीद लिया है। उनकी वजह से मेरा नम्बर कटते-कटते रह गया।'' उसके कोमल मन पर खरोंच लगी हुई थी। ''मामा, ऐसा हुआ तो आगे और भी मुश्किल हो जाएगी।'' उसने फिर चितित स्वर में कहा।
खरीद-फरोख्त का यह धधा जग-जाहिर था। ''मामा, मैच खत्म होते ही, लोगों ने मुझे कंधे पर उठा लिया। देखना मामा, एक दिन मैं ऐसे ही इण्डिया को भी जिताऊंगा।'' उस दिन भी वह कोई टूर्नामेंट खेल कर लौटा था और बेहद उत्साहित था। ''तेरा रिजल्ट भी तो आना था- क्या हुआ?'' बधाई देने के बाद मैने पूछा।
''छोड़ो मामा! कौन सा कुंभ का मेला है जो बारह साल बाद आएगा। इस साल नहीं तो अगले साल सही।'' उसने कंधे झटकते हुए कहा। मैं समझ गया कि वह रह गया है।
फिर वह दिन भी आया जब उसे फाईनल ट्रायल के लिए जाना था। उससे पूजा अर्चना करवाई गई, नारियल फोड़ा गया और उसकी मा ने नाक रगड़-रगड़ कर उसके लिए मन्नत मागी। उसे विदा करने स्टेशन पर बहुत से लोग गए थे- मैं भी गया था।
उसका क्या हुआ यह जानने के लिए रोज मैं अखबार की एक-एक पक्ति पढ़ जाता- पर ट्रायल की कहीं कोई खबर नहीं छपती। एक दिन खिलाड़ियों की भर्ती के लिए छपी हुई रेलवे की विज्ञप्ति ने मुझे झिझोड़ दिया। ऐसी विज्ञप्तिया पहले भी छपी होंगी पर मैं तो पहली बार पढ़ रहा था।
रेलवे में खिलाड़ी-कोटे से भर्ती के लिए प्रार्थना-पत्र मागे गए थे। खिलाड़ी को 'राज्य', 'विश्वविद्यालय' या देश के लिए खेला हुआ होना जरूरी था- और पद था- खलासी का। अपना सर्वस्व खेलों पर लुटा देने वाले खिलाड़ियों के लिए यह एक अपमानजनक आमत्रण था।
उस रात मैं बेहद परेशान रहा। भविष्य के सपनों में डूबा हुआ उसका अलमस्त मासूम चेहरा बार-बार मेरे जेहन में उभरा। मैंने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह अपने मकसद में कामयाब हो। क्योंकि यदि वह असफल हुआ तो- वह देश के लिए खेल पाएगा या नहीं- यह प्रश्न गौण हो जाएगा और एक नया प्रश्न जन्म ले लेगा कि अब वह खलासी भी बन पाएगा या नहीं!.. और फिर आरम्भ हो जाएगी उस भवर की यात्रा जिसमें डूबकर कोई खिलाड़ी फिर कभी नहीं उभरा। उस रात सपनों में किताबों के जले हुए शैल्फ उभरे, कोयला हो चुकी राइटिग टेबल और राख बनी जिल्दवाली किताबों की कतारे उभरीं। सोचता हू पता नहीं कैसे इन सपनों को हमारी हैसियत का पता लग जाता है।
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